Kanda Kalika Temple Bageshwar Spiritual by TeamYouthuttarakhand - January 1, 2018January 5, 2018 कांडा पड़ाव में माता कालिका मंदिर के विहंगम दृश्य। – फोटो : TeamYouthUttarakhand अर्जुन सिंह माजिला अर्जुन सिंह माजिला कांडा में कालिका मंदिर कांडा कुमाउनी संस्कृति का एक प्रमाणिक प्रतीक है जिस कारण इसे पर्यटन के गाँव के रूप में भी जाना जाता है ! यह एक ऐतिहासिक स्थान है जिसे शंकराचार्य ने 10 वी शताब्दी में स्थापित किया गया ! माँ काली और कालषण देव का यह भब्य मन्दिर जो कांडा बागेश्वर में स्थित है । 10वी सताब्दी में जब गुरु शंकराचार्य इस जगह से होते हुए कैलाश मानसरोवर तप करने जा रहे थे तो यहां पहुचते हुए उन्हें अंधेरा हो गया था तो उन्होंने रात्रि में यहीं विश्राम करने का निर्णय लिया। रात्रि को उन्हें स्वप्न हुआ और पता चला कि यहां काल नाम का राक्षष नर बलि ले रहा है, उसने कालषण देव को भी अपने वस में कर लिया है, सुबह लोगों ने भी उन्हें इस बात से अवगत कराया कि काल उनके बच्चो की बली ले रहा है, प्रतिवर्ष एक व्यक्ति के मारे जाने के कारण लोग परेशान है वह हर साल एक नरबलि लेता है । वह अदृश्य काल जिसका भी नाम लेता, उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती थी उसे रोकने वाला कोई नही है और यहां की जनता लगातार विस्थापित हो रही अतः आपसे निबेदन है कि आप कुछ उपाय करें, तो जगत गुरु शंकराचार्य ने यज्ञ कर मंत्रोउच्चारण से काल को अपने वश में कर स्थानीय लोहार द्वारा निर्मित सात लोहे की कढाईयो से दबा दिया और उसके ऊपर एक बड़ी शिला स्थापित कर दी (इसे काल शिला नाम से भी जाना जाता है ) और उस शिला के ऊपर काली मां का आह्वान करके और कालषण देवता की मूर्तियां स्थापित की जो आज भी यहां बिधहमान हैं , इस शिला को इस तरह से रखा गया है कि काल हमेशा माँ काली की और कालषण देव की नजरों के सामने रहे, यानी काल शिला की लंबाई के एक छोर पर माँ काली और कालषण देव की स्थापना हुई और दूसरे छोर को मूर्तियो के सामने रखा गया बसे यहां पंच बलि का विधान भी जगत गुरु ने ही प्रारंभ करवाया, चूँकि यहां ब्राह्मण रहते थे तो वो बलि नही दे सकते थे तो इसे प्रारम्भ करने के लिए क्षत्रिय लोग चाहिये थे जो बलि दे सके, तो शंकराचार्य जी ने इसके लिए कुमाऊं के एक राजा साही थे जो डोरमठकोट गांव, पिथौरागढ़ में है से मदद मांगी, जिनके तीन पुत्र थे उनमे से बड़े पुत्र जो पिता के प्रिय थे और छोटे अपनी माँ के प्रिय थे, तो केवल बीच के पुत्र(मझला) ने इसे अवसर समझकर और माँ का आशीर्वाद समझकर स्वीकार किया और गुरु जी को मदद करने का आश्वाशन दिया, तब से आज तक मझला(माझिल-कुमाऊनी)यानी जो माजिला बंधु हैं वही सबसे पहले बलि देते हैं, विक्रम देव सिंह राणा(माजिला) ने सबसे पहले यहां बलि दी, पंच बलि में जिसमे बकरा, भैसा, मुर्गी, छिपकली,कुमिन(भुज),सुवर,नारियल(गोला),सम्मिलीत है, जिससे काल हमेशा सांत बना रहा, और नर बलि रुक गई तब से इसे कई वर्ष तक जारी रखा गया, और 2011 सेसुप्रीम कोर्ट के आदेेश से बलि प्रथा पर रोक लगी है जो आज भी लागू है अब यहां बलि नही होती है, अर्जुन सिंह माजिला जो पिछले 17 साल से प्रधान सेवक का कार्यभार संभाले हुए माँ की सेवा कर रहे हैं । स्थानीय लोगों ने सन १९४७ में मंदिर का विद्यिवत निर्माण किया एवं सन १९८८ में इसे भव्य रूप दिया गया था । तब से प्रत्येक नवरात्री पर यहाँ देवी की आराधना की जाती है !आस्था की इस परपरा का इतिहास दस सौ साल पुराना है नवरात्र हो या अन्य पर्व यहां श्रद्धालुओं का हमेशा तांता लगा रहता है। मंदिर में कथा, भागवत, शतचंडी महायज्ञ होते रहते हैं। यहां दशहरा में बड़ा मेला लगता है। काण्डा पड़ाव में स्थित माता कालिका के भव्य मंदिर में प्रतिवर्ष लगने वाला मेला न सिर्फ क्षेत्रवासियों अपितु दूरदराज के लोगों को भी अपनी भव्यता एवं आस्था से आकर्षित करता है। मंदिर से जुड़े कई तथ्यों और मंदिर से जुडी जानकारी आप लोगो के सामने रख पाए इसलिए युथ उत्तराखंड फाउंडर मेंबर अमित रौतेला माँ कालिका मंदिर जाकर तथ्यों और जुडी जानकारी के लिए मंदिर के पुजारी और स्थानीय लोगो से इस बात की प्रामाणिक जानकारी की है जो भी भक्त मंदिर में सच्चे मन से आता है। माता उसकी सभी मनोकामना पूरी कर देती हैं। माँ उसकी हर मनोकामना पूरी करती है आप भी अपने परिवार के साथ एक बार यहाँ अवश्य आएं|🙏जय माता दी 🙏 शेयर और कमेंट करना न भूले | शेयर करें ताकि अन्य लोगों तक पहुंच सके और हमारी संस्कृति का प्रचार व प्रसार हो सके ॥। देवभूमि उत्तराखंड के रंग युथ उत्तराखंड के साथ🙏 Share on Facebook Share Share on TwitterTweet Share on Pinterest Share Share on LinkedIn Share Share on Digg Share