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कोट भ्रामरी मंदिर

kotbhamri

कोट भ्रामरी मंदिर, जिसे भ्रामरी देवी मंदिर और कोट की माई भी कहा जाता है, एक पहाड़ी की चोटी पर गरुड़ से 5 किमी दूर स्थित है। एक लोकप्रिय किंवदंती के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि महान भारतीय गुरु, आदि गुरु शंकराचार्य, गढ़वाल के क्षेत्र में यात्रा करते समय इस स्थान पर रहे। अगस्त में हर साल, एक मेला, जिसे नंदा अष्टमी या नंदा राज जाट के नाम से जाना जाता है, यहां आयोजित किया जाता है और एक बड़ा जुलूस किया जाता है।मां नंदा-सुनंदा और भ्रामरी के इस मंदिर में वर्ष में दो बार विशाल मेला लगता है। चैत्र मास की शुक्ल अष्टमी को भ्रामरी देवी की पूजा अर्चना के साथ मेला लगता है। करीब 2500 वर्ष ईसा पूर्व से सातवीं ईसवी तक यहां पर कत्यूरी राजाओं का शासन रहा। इन्हीं कत्यूरी राजाओं ने कत्यूर घाटी के महत्वपूर्ण स्थानों को किले के रुप में स्थापित किया था। वर्तमान कोट मंदिर को भी किले का रुप दिया गया था।

कोट मंदिर में कत्यूरी राजाओं की अधिष्ठात्री देवी भ्रामरी तथा चंदवंशावलियों द्वारा प्रतिष्ठापित नंदा देवी स्थापित की गई है। भ्रामरी के रुप में देवी की पूजा-अर्चना यहां मूíत के रुप में नहीं बल्कि शक्ति रूप में की जाती है। जबकि नंदा के रूप में स्थल पर मूíत पूजन, डोला स्थापना और विसर्जन का प्रचलन है।

कोट भ्रामरी मंदिर की स्थापना के सम्बंध में कहा जाता है कि कत्यूर क्षेत्र में अरुण नामक दैत्य का बेहद आतंक था। उसी दौरान कत्यूरी राजा आसंति देव और बासंति देव कत्यूर को राजधानी बनाने की सोच रहे थे। दैत्य से पीड़ित जनता ने तब राजाओं से अपनी व्यथा कहीं। कत्यूरी राजाओं का दैत्य से भयंकर युद्ध हो गया। लेकिन राजाओं को पराजय का मुंह देखना पड़ा। कहा जाता है कि तब राजाओं ने भगवती मां से दैत्य के आतंक से निजात दिलाए जाने की प्रार्थना की। राजाओं द्वारा विधि-विधान से पूजा अर्चना करने के बाद मैया भंवरे के रुप में प्रकट हुई तथा मैया ने अरुण नामक दैत्य का वध कर दिया। तब कहीं जाकर जनता को दैत्य के आतंक से मुक्ति मिली। मैया की इसी अनुकंपा के कारण ही मैया की भंवर के रुप में पूजा होती है।

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