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Bagwal – Devidhura Mela

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देवीधुरा मेला

देवीधुरा उत्तराखंड में वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है। इस मेले को देवीधुरा मेला कहते हैं माँ बाराही धाम लोहाघाट-हल्द्वानी मार्ग पर लोहाघाट से लगभग 45 कि.मी की दूरी पर स्थित है। यह स्थान सुमद्रतल से लगभग 6500 फिट की ऊँचाई पर स्थित है। महाभारत में पाण्डवों के अज्ञातवास से लेकर अनेक पौराणिक धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं से जुडा हुआ है। वैष्णवी माँ बाराही का मन्दिर भारत में गिने चुने मन्दिरों में से है। पौराणिक कथाओं के आधार पर हिरणाक्ष व अधर्मराज पॄथ्वी को पाताल लोक ले जाते हैं। तो पृथ्वी की करूण पुकार सुनकर भगवान विष्णु वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को बचाते है। तथा उसे वामन में धारण करते है। तब से पृथ्वी स्वरूप वैष्णवी वाराही कहलायी गई। यह वैष्णवी आदि काल से गुफा गहवर में भक्त जनों की मनोकामना पूर्ण करती आ रही है। श्रावण शुक्ल एकादशी से कृष्ण जन्माटष्मी तक अनेक आयामों को छुने वाले इस मेले का प्रमुख आकर्षण ’’बग्वाल’’ है। जो श्रावणी पूर्णिमा को खेली जाती है। ’’बग्वाल’’ एक तरह का पाषाण युद्ध है जिसको देखने देश के कोने-कोने से दर्शनार्थी इस पाषाण युद्ध में चार खानों के दो दल एक दूसरे के ऊपर पत्थर बरसाते है बग्वाल खेलने वाले अपने साथ बांस के बने फर्रे पत्थरों को रोकने के लिए रखते हैं। मान्यता है कि बग्वाल खेलने वाला व्यक्ति यदि पूर्णरूप से शुद्ध व पवित्रता रखता है तो उसे पत्थरों की चोट नहीं लगती है। सांस्कृतिक प्रेमियों के परम्परागत लोक संस्कृति के दर्शन भी इस मेले के दौरान होते हैं। यह मेला प्रति वर्ष रक्षा बंधन के अवसर पर 15 दिनों के लिए आयोजित किया जाता है जिसमें अपार जन समूह दर्शनार्थ पहुंचता है।

बग्वाल

हर साल रक्षाबंधन के दिन लोहाघाट(चम्पावत) के देविधूरा नामक जगह पर “माँ बाराही” के मंदिर परिसर में आयोजित किया जाता है। बग्वाल एक तरह का पाषाण युद्ध(पत्थरों से किया जाने वाला युद्ध) है जिसमें एक दूसरे पर पत्थर मारने की प्रथा है। यह वर्षों से चला आ रहा है। इस बग्वाल मेले में माँ बाराही को प्रसन्न करने के लिये देविधूरा में रहने वाले गहड़वाल, चमियाल, लमगड़िया, वालिक ये चार खामों के रणबांकुरे आपस में पत्थर बाजी करते हैं। पिछले कुछ सालों से पत्थरों की वजाय फल और फूलों का ज्यादा प्रयोग किया जाता है पर फिर भी पत्थर मारने की प्रथा भी जारी है। इतिहासकारों की मानें तो महाभारत काल में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक जाति ऐसी थी जो अश्म युद्ध (पत्थर मार युद्ध) में प्रवीण थी और इन योद्धाओं ने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था। युद्ध से पहले चारों खामों के लोग अपनी टोलियों से साथ पूरे मंदिर परिसर की परिक्रमा करते हैं। ढोल-नगाड़ों का नाद, शंख-घंटों की टंकार और मां की जयकार के साथ द्योत उछलते-कूदते पूरे जोशो-खरोश के साथ खोलीखाड़-दुबाचौड़ मैदान में एक-एक कर प्रवेश करते हैं। पीली पगड़ी पहने द्योत, हाथों में छंतोले लिए जब प्रांगण में आकर प्रतिदंवदंवियों की टोह लेना शुरू करते हैं तो ऐसा लगता है कि मानों योद्धाओं की फौज व्यूह रचना कर रही हो। वालिक्या और लगमडिय़ा खाम पश्चिमी छोर से तो चम्याल और गहड़वाल पूर्वी छोर से रणभूमि में गर्जन करते नजर आते हैं। आसमां जयकारों और रणबांकुरों की ललकार से गुंजायमान हो जाता है। मंदिर के पुजारी से संकेत मिलने के बाद गहड़वाल खाम के द्योत सबसे पहले पत्थर मारते हैं। मान्यता है कि देवी को अठ्वार (अष्ठ बलि) देने से वह खुश होती हैं। लोग मन्नत पूरी होने के बाद अठ्वार में सात बकरों और एक भैंसे की बलि देते हैं। बकरों के मांस को तो लोग खा लेते हैं, लेकिन भैंसे को यूं ही छोड़ देते हैं। माँ बाराही धाम, लोहाघाट लोहाघाट-हल्द्वानी मार्ग पर लोहाघाट से लगभग 45 कि0मी की दूरी पर स्थित है। यह स्थान सुमद्रतल से लगभग 6500 फिट की ऊँचाई पर स्थित है। महाभारत में पाण्डवों के अज्ञातवास से लेकर अनेक पौराणिक धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं से जुडा हुआ है।


शेर का पत्थर
माँ बाराही देवी देवीधूरा के प्रांगण मे तीन मन 4 शेर का पत्थर है। लगभग 130 किलोग्राम का कई माँ के भक्त किसे उठाते है।

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देवभूमि उत्तराखंड के रंग युथ उत्तराखंड के संग🙏

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