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यमकेश्वर महादेव मंदिर

जय यमकेश्वर महादेव 🚩

यमकेश्वर महादेव के नाम से भगवान शिव का अत्यंत प्राचीन मंदिर है यमकेश्वर मंदिर के निकट का टीला जो पीपल के पते के सवरूप भी एक प्रकिर्तिक शिवलिंग के सामान है जिसके चारो और जल रहता है इस मंदिर का एक चमत्कार हैं जिस किसी दम्पति का संतान नहीं होता हैं उसे यहाँ आना पड़ता हैं और एक पीतल या तांबे का घड़ा बह्ग्वान शिव को अर्पित करना पड़ता हैं यमकेश्वर महादेव जी का मन्दिर उत्तराखंड की हरी भरी वादियो मैं बसा हुआ हैं ऋषिकेश उत्तराखंड से 150 किलोमीटर की दुरी पर बसे हैं  कोटद्वार से मंदिर की दूरी लगभग 80 किमी है  कुछ वयोवृद्ध ऐसे वनद्वीप भी कहते है उत्तराखंड में गढ़वाल मंडलान्तर्गत पौड़ी जनपद है हरिद्वार तथा कोटद्वार, गढ़वाल के दो प्रवेश द्वारों के मध्य पर्वतीय अंचल में यमकेश्वर नामक स्थान है। पुराणों में वर्णित मार्कण्डेय की मृत्यु पर विजय की कथा से संबंधित है

 

इस मंदिर से संबंधित कुछ लोक प्रचलित कथाएं हैं। 

 

ब्रह्माजी के पुत्र कुत्स ऋषि तथा कुत्सऋषि के मृगश्रृडु(मृगश्रृंग) नामक पुत्र हुए ! !पुरातन काल में मृगश्रृंग नाम के एक ब्रह्मचारी थे। उनका विवाह सुवृता के संग संपन्न हुआ। मृगश्रृंग और सुवृता के घर एक पुत्र ने जन्म लिया। उनके पुत्र हमेशा अपना शरीर खुजलाते रहते थे। इसलिए मृगश्रृंग ने उनका नाम मृकण्डु रख दिया। मृकण्डु में समस्त श्रेष्ठ गुण थे। उनके शरीर में तेज का वास था। पिता के पास रह कर उन्होंने वेदों के अध्ययन किया। पिता कि आज्ञा अनुसार उन्होंने मृदगुल मुनि की कन्या मरुद्वती से विवाह किया। मृकण्डु जी का वैवाहिक जीवन शांतिपूर्ण ढंग से व्यतीत हो रहा था। जब मृकण्डु ऋषि को कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान शिव की आराधना की। उनकी तपस्या से प्रकट हुए भगवान शिव ने उनसे पूछा कि वे गुणहीन दीर्घायु पुत्र चाहते हैं या गुणवान 16 साल का अल्पायु पुत्र। तब मृगश्रृडु ऋषि ने कहा कि उन्हें अल्पायु लेकिन गुणी पुत्र चाहिए। भगवान शिव ने उन्हें ये वरदान दे दिया। मृगश्रृडु के तेजस्वी पुत्र मार्कण्डेय के सोलहवे वर्ष के प्रारम्भ होने पर मृग श्रृडु का हृदय शोक से कातर हो उठा सम्पूर्ण इन्दिर्यो में व्याकुलता छा गयी वे दीनतापूर्वक विलाप करने लगे ! पिता को अत्यंत दुखी और करुण विलाप करते देख़ मार मार्कण्डेय ने उन्हें शोक मोह का कारण पूछा ! मृकण्डु (मृगश्रृडु) ने शोक का कारण बताया और कहा की पुत्र ! भगवान शिव ने तुम्हे सोलह वर्ष की आयु मिली है उसकी समाप्ति का समय आ पंहुचा है अतः मुझे शोक हो रहा है उस दिन वे पूजा में तलीन हो ज्योही स्तुति करने का उघत हुए उसी समय मृत्यु को साथ लिए महिरुढ काल उन्हें लेने आ पंहुचा ! राहु द्वारा चंदमा ग्रसने की भाँति गर्जन करते हुए काल ने मार्कण्डेय को हटपूर्वक ग्रसना आरम्भ किया मार्कण्डेय शिवलिंग से लिपट गये उसी समय परमेश्वर शिव उस लिंग से सहसा प्रकट हो गये हुंकार भर कर परचंड गर्जना करते हुए तुरंत ही यमराज के वक स्थल पर लात मारी मृत्युदेव उनके चरण प्रहार से भयभीत हो दूर जा पड़े ! शिव ने बस एक शर्त पर यमराज को छोड़ा कि उनका ये भक्त (ऋषि मार्कण्डेय) अमर रहेगा। इस घटना के बाद शिव को कालांतक भी कहा जाने लगा, जिसका अर्थ है काल यानि मौत का अंत करने वाला। उसके बाद मृत्यु देवता शिवजी कि आज्ञा पाकर वहां से चले गए। यम से झगड़ा होने के कारण ही इस स्थान का नाम यमरार पड़ा !
यमकेश्वर नाम स्थान में आकर भगवान शिव प्रसन्न हो गये और यमराज से बोले जहाँ मेरा मृत्युंजय जप होता है उस स्थान में तुम्हे  नहीं  जाना भी चाहिये !  यमराज ने एक वर्ष तक इस शिवलिंग के सामने घोर तपस्या की। अंत में यमराज की स्तुति से प्रसन्न हो कर शिव ने कहा कि जिस स्थान में तुम उस स्थान में मेरी सवयंभु लिंग रुपी मूर्ति उत्पन्न हुई है उसका तुम पूजन अर्चन करो यह मूर्ति तुम्हारे नाम से ही प्रसिद्ध होगी इस शिवलिंग का जो भी पूजन करेगा वह बड़ी से बड़ी अपमृत्यु को टाल देगा ! पुराणोंक्त मार्कण्डेय की तप स्थली एवं यमराज द्वारा स्थापित शिव का मंदिर वर्तमान यमकेश्वर में है

मार्कण्डेय ऋषि का जन्म –

पुरातन काल में मृगश्रृंग नाम के एक ब्रह्मचारी थे। उनका विवाह सुवृता के संग संपन्न हुआ। मृगश्रृंग और सुवृता के घर एक पुत्र ने जन्म लिया। उनके पुत्र हमेशा अपना शरीर खुजलाते रहते थे। इसलिए मृगश्रृंग ने उनका नाम मृकण्डु रख दिया। मृकण्डु में समस्त श्रेष्ठ गुण थे। उनके शरीर में तेज का वास था। पिता के पास रह कर उन्होंने वेदों के अध्ययन किया। पिता कि आज्ञा अनुसार उन्होंने मृदगुल मुनि की कन्या मरुद्वती से विवाह किया। मृकण्डु जी का वैवाहिक जीवन शांतिपूर्ण ढंग से व्यतीत हो रहा था। लेकिन बहुत समय तक उनके घर किसी संतान ने जन्म ना लिया। इस कारण उन्होंने और उनकी पत्नी ने कठोर तप किया। उन्होंने तप कर के भगवन शिव को प्रसन्न कर लिया। भगवान् शिव ने मुनि से कहा कि, “हे मुनि, हम तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हैं मांगो क्या वरदान मांगते हो”? तब मुनि मृकण्डु ने कहा, “प्रभु यदि आप सच में मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो मुझे संतान के रूप में एक पुत्र प्रदान करें”। भगवन शंकर ने तब मुनि मृकण्डु से कहा की, “हे मुनि, तुम्हें दीर्घ आयु वाला गुणरहित पुत्र चाहिए। या सोलह वर्ष की आयु वाला गुणवान पुत्र चाहते हो?” इस पर मुनि बोले, “भगवन मुझे ऐसा पुत्र चाहिए जो गुणों कि खान हो और हर प्रकार का ज्ञान रखता हो फिर चाहे उसकी आयु कम ही क्यों न हो।” भगवान् शंकर ने उनको पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया और अंतर्ध्यान हो गए। समय आने पर महामुनि मृकण्डु और मरुद्वती के घर एक बालक ने जन्म लिया जो आगे चलकर “मार्कण्डेय” ऋषि के नाम से प्रसिद्द हुआ।

महामुनि मृकण्डु ने मार्कण्डेय को हर प्रकार की शिक्षा दी। महर्षि मार्कण्डेय एक आज्ञाकारी पुत्र थे। माता-पिता के साथ रहते हुए पंद्रह साल बीत गए। जब सोलहवां साल आरम्भ हुआ तो माता-पिता उदास रहने लगे। पुत्र ने कई बार उनसे उनकी उदासी का कारण जानने का प्रयास किया। एक दिन महर्षि मार्कण्डेय ने बहुत जिद की तो महामुनि मृकण्डु ने बताया कि भगवन शंकर ने तुम्हें मात्र सोलह वर्ष की आयु दी है और यह पूर्ण होने वाली है। इस कारण मुझे शोक हो रहा है। इतना सुन कर मार्कण्डेय ऋषि ने अपने पिता जी से कहा कि आप चिंता न करें मैं शंकर जी को मना लूँगा और अपनी मृत्यु को टाल दूंगा। इसके बाद वे घर से दूर एक जंगल में चले गए। वहां एक शिवलिंग स्थापना करके वे विधिपूर्वक पूजा अर्चना करने लगे। निश्चित समय आने पर काल आ पहुंचा। ऋषि मार्कण्डेय पूरे समर्पण भाव के साथ शिव की पूजा में लीन थे जब यमदूत उन्हें लेने आए तो वह उनकी पूजा में विघ्न डाल पाने में सफल नहीं हुए। यमदूत को असफल होते देख स्वयं यमराज को मार्कण्डेय को लेने धरती पर आना पड़ा। यमराज ने एक फंदा मार्कण्डेय की गर्दन में डालने की कोशिश की लेकिन गलती से वह फंदा शिवलिंग पर चला गया। तत्पश्चात काल ने जब उन्हें ग्रसना चाहा तो वे शिवलिंग से लिपट गए। इस सब के बीच भगवान् शिव वहां प्रकट हुए। यमराज की इस हरकत पर शिव को क्रोध आ गया और वह अपने रौद्र रूप में यमराज के समक्ष उपस्थित हो गए। उन्होंने काल की छाती में लात मारी। शिव और यमराज के बीच एक बड़ा युद्ध हुआ, जिसमें यमराज को हार का सामना करना पड़ा। शिव ने बस एक शर्त पर यमराज को छोड़ा कि उनका ये भक्त (ऋषि मार्कण्डेय) अमर रहेगा। इस घटना के बाद शिव को कालांतक भी कहा जाने लगा, जिसका अर्थ है काल यानि मौत का अंत करने वाला। उसके बाद मृत्यु देवता शिवजी कि आज्ञा पाकर वहां से चले गए।

मार्कण्डेय ऋषि की श्रद्धा और आस्था देख कर भगवान शंकर ने उन्हें अनेक कल्पों तक जीने का वरदान दिया। अमरत्व का वरदान पाकर महर्षि वापस अपने माता-पिता के पास आश्रम आ गए और उनके साथ कुछ दिन रहने के बाद पृथ्वी पर विचरने लगे और प्रभु की महिमा लोगों तक पंहुचाते रहे।

 

 

मंदिर के सामने बहने वाली छोटी नदी का नाम शतरुद्रा था।

मंदिर के सामने बहने वाली छोटी नदी का नाम शतरुद्रा था।
सत्य मामा है इसका उद्गम यमराड़ी है जहां मार्कण्डेय ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की थी जहां सात कुंड वर्तमान में भी विद्यमान हैं।
यमकेश्वर के निकट ही कांडा नामक गांव है इस गांव की वृद्धा ने सर्वप्रथम यमकेश्वर शिव लिंग का साक्षात्कार किया था। उस समय यमकेश्वर के आस पास झाडियों और वनों की अधिकता थी एक दिन उक्त बुढिय़ा वाराही कंद लेने इस स्थल पर आई। झाडिय़ों में गीढ़ी खोदते समय एकाएक कुदाली की नोंक एक पत्थर पर लगी। पत्थर पर खरोंच लगते ही उससे दूध की धार फूट पड़ी। यह देखकर बुढिय़ा घबरा गई। तब शिव भगवान ने प्रकट होकर कहा कि तुम यहां क्या लेने आई हो।

मुझे गीढ़ी (कंद) चाहिए। उन्होंने कहा कि जाओ घर में ही तुम्हें इच्छित वस्तु मिल जाएगी। बुढिय़ा ने घर जाकर देखा कि उसका आंगन। गंढी से भरा पड़ा था। तब बुढिया ने क्षेत्र के लोगों को उस स्थान के बारे में बताया फिर स्थल का निर्माण शुरू हुआ।

 

 

महाकाली मंदिर

यमकेश्वर महादेव के बाएं पाश्र्व में महाकाली मंदिर भी है यह मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है। इसकी स्थापना के संबंध में भी वयोवृद्ध लोग एक बहुत रोचक व आश्चर्यजनक वृतांत सुनाते हैं। यह विश्वसनीय घटना अधिक प्राचीन नहीं है यमकेश्वर मंदिर में किसी समय एक सिद्ध तांत्रिक बाबा जोगेन्द्र गिरि आए।

उनकी सिद्धि व भक्ति भावना से स्थानीय लोग प्रभावित थे, परंतु कुछ लोग उनकी चमत्कारिक शक्ति का प्रदर्शन देखना चाहते थे। अत: उन लोगों ने बाबा से निवेदन किया कि बाबा यदि आपमें कुछ सिद्धि या शक्ति है तो यहां मां काली को बुलाकर स्थापना कर दीजिए।

बाबा ने कहा कि काली का आह्वान तो में कर लूंगा परंतु कुछ व्यक्ति जो निर्भीक और दृढ़ हृदय के हों वे मेरे निकट बैठ जाएं। इस साधन में बैठने के पश्चात में अनुष्ठान के पूर्ण होने तक आसन पर ही बैठा रहूंगा अन्यथा क्रिया खंडित हो जाएगी और भयंकर अनिष्ट भी सकता है। मां काली को अर्पण करने हेतु जो जो सामग्री में आपसे मांगूंगा आप मुझे देते रहना।

सहर्ष ही कुछ लोग इस कार्य के लिए तैयार हो गए। पूजन हवन एवं अर्पण की संपूर्ण सामग्री मंगाकर बाबा ने अपने चारों ओर रख ली और आसन जमा कर बैठ गए और बोले कि तुम लोग भयभीत मत होना और मेरे संकेतानुसार सामग्री मुझे देते जाना। और अनुष्ठान प्रारंभ कर दिया।
बाबा ये मंत्रों से मां महाकाली का पूजन स्तवन एवं जप प्रारंभ कर दिया। शनै: शनै: काली के आह्वान मंत्रों का उच्चारण किया। क्षणभर पश्चात घाटी में भयंकर घाटी में भयंकर तूफान तथा विचित्र अट्टाहास युक्त आवाजें सुनाई देने लगी। वातावरण भयावह हो रहा था।

और लोगों का साहस क्षीण होता जा रहा था सुदूर स्थित क्षेत्र से एक भयंकर किलकारी की ध्वनि ने उन लोगों के साहस को बिल्कुल तोड़ दिया एक-एक करके सब लोग भाग गए। व बाबा अकेले अनुष्ठान करते रहे। क्षण भर पश्चात मां महाकाली बाबा के समक्ष उपस्थित हो गई। बाबा ने विभिन्न भोग सामग्री मां काली को अर्पित की।

जहां तक उनका हाथ पहुंचा उन्होंने सारी सामग्री प्रदान कर दी। आसन से उठना निषद्ध था अत: उन्होंने काली का भोग पूरा करने के लिए अपने शरीर का मांस काट-काट कर अपना ही बलिदान कर दिया। भक्त की अगाध श्रद्धा, अदम्य साहस एवं शरीरार्पण देख मां काली प्रसन्न हो गई और बाबा से वर मांगने को कहा।

नश्वर शरीर का मोह त्याग कर उन्होंने मां काली से कहा कि आपका दर्शन हो गया यही मेरे लिए बहुत है, अगर आप मुझ पर प्रसन्न हें तो मेरी एक प्रार्थना स्वीकार कर इस स्थान पर प्रतिष्ठित हो जाइए। तथाअस्तु कह कर मां काली उस स्थान पर प्रतिष्ठित हो गई। मां काली के पाश्र्व स्थल में बाबा की समाधि के ऊपर एक छोटा सा स्थान मंदिर आज भी उनके त्याग मय बलिदान का स्मारक है।

 

 

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

 

 

महामृत्युंजय-मंत्र की रचना कैसे हुई? 

शिवजी के अनन्य भक्त मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण दुखी थे. विधाता ने उन्हें संतान योग नहीं दिया था. मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं. इसलिए क्यों न भोलेनाथ को प्रसन्नकर यह विधान बदलवाया जाए. #मृकण्ड ने घोर तप किया. #भोलेनाथ मृकण्ड के तप का कारण जानते थे इसलिए उन्होंने शीघ्र दर्शन न दिया लेकिन भक्त की भक्ति के आगे भोले झुक ही जाते हैं. महादेव प्रसन्न हुए. उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूं लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा. भोलेनाथ के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम #मार्कण्डेय पड़ा. ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है. इसकी उम्र केवल 12 वर्ष है. ऋषि का हर्ष विषाद में बदल गया. मृकण्ड ने अपनी पत्नी को आश्वत किया- जिस ईश्वर की कृपा से संतान हुई है वही #भोले इसकी रक्षा करेंगे. भाग्य को बदल देना उनके लिए सरल कार्य है. मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिवमंत्र की दीक्षा दी. #मार्कण्डेय की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थी. उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी. #मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि माता-पिता के सुख के लिए उसी सदाशिव भगवान से दीर्घायु होने का वरदान लेंगे जिन्होंने जीवन दिया है. बारह वर्ष पूरे होने को आए थे. मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना के लिए महामृत्युंजय-मंत्र की रचना की और शिव मंदिर में बैठकर इसका अखंड जाप करने लगे. “ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥” समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए. यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की. मार्केण्डेय ने अखंड जप का संकल्प लिया था. यमदूतों का मार्केण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए. उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए. इस पर यमराज ने कहा कि #मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लेकर आऊंगा. यमराज मार्कण्डेय के पास पहुंच गए. बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो जोर-जोर से महामृत्युंजय-मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया. यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तभी जोरदार हुंकार से मंदिर कांपने लगा. एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आंखें चुंधिया गईं. शिवलिंग से स्वयं महाकाल प्रकट हो गए. उन्होंने हाथों में त्रिशूल लेकर यमराज को सावधान किया और पूछा तुमने मेरी साधना में लीन भक्त को खींचने का साहस कैसे किया? यमराज महाकाल के प्रचंड रूप से कांपने लगे. उन्होंने कहा- प्रभु मैं आप का सेवक हूं. आपने ही जीवों से प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है. भगवान-चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शांत हुआ तो बोले- मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूं और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है. तुम इसे नहीं ले जा सकते. यम ने कहा- प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है. मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दूंगा. महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए. उनके द्वारा रचित  महामृत्युंजय-मंत्र  काल को भी परास्त करता है.

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